भक्तिधारा (रैदास के पद , पदावली) के पद्यांश की संदर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या , अभ्यास प्रश्नोत्तर।

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रैदास के पद ( रैदास ) के पद्यांश की संदर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या

रैदास के पद (1) 

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी , जाकी अंग - अंग बास समानी ।

प्रभुजी तुम घन बन हम मोरा , जैसे चितवत चंद चकोरा ।

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती , जाकी जोति बरे दिन राती ।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा , जैसे सोनहिं मिलत सोहागा । 

प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा , ऐसी भक्ति करै ' रैदासा ' ।

कठिन शब्दार्थ - अंग - अंग = प्रत्येक अंग में ; बास सुगंध ; घन = बादल ; मोरा = मोर ; चितवत = देखता है ; चकोरा चकोर पक्षी ; जोति = प्रकाश ; बरे = जलती है ; दिन राती = रात - दिन ; सोनहिं = सोने की ; दासा = दास , सेवक । 

सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यांश ‘ भक्तिधारा ' के ' रैदास के पद ' शीर्षक से लिया गया है । इसके रचयिता रैदास जी हैं । 

प्रसंग - इस पद में सन्त कवि रैदास ने भक्त और भगवान में क्या रिश्ता होता है , उसका विविध प्रकार से वर्णन किया है । 

व्याख्या - सन्त कवि रैदास भक्त और भगवान् के मध्य स्थित सम्बन्ध की चर्चा करते हुए कहते हैं कि हे प्रभुजी ! यदि आप चन्दन हैं तो हम पानी बनकर , चन्दन को घिस - घिस कर उसकी सुगन्ध को प्राप्त कर लेंगे और इस प्रकार भगवान् की सुगन्ध हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में समा जायेगी । 

आगे वे कहते हैं कि हे प्रभु जी ! आप तो बादलों के समान हैं और हम उन वर्षाकालीन धूम - धुआँरे बादलों को देखकर नाच करने वाले मोर बने हुए हैं । हम आपकी ओर टकटकी लगाकर वैसे ही देखते रहते हैं जैसे कि चकोर पक्षी चन्द्रमा को देखता फिरता है । हे भगवान् ! आप यदि दीपक हैं तो हम भक्त उस दीपक में जलने वाली बाती हैं । आपकी यह शाश्वत ज्योति दिन - रात जलती रहती है । हे भगवान् ! आप तो मोती के समान हैं और हम उन मोतियों को पिरोने वाले धागे हैं । जिस प्रकार सुहागा मिलकर सोने की चमक को कई गुना बढ़ा देता है वैसे ही आपका स्पर्श या संसर्ग पाकर हमारा सम्मान बढ़ जाता है । हे भगवान् ! आप स्वामी हैं और हम आपके दास हैं । हम आपसे यही विनती करते हैं कि आप मुझ रैदास को इसी प्रकार भक्ति देकर कृतार्थ करते रहो । 

विशेष- 

( 1 ) सम्पूर्ण पद में रूपक अलंकार है । 

( 2 ) मुहावरों व कहावतों का सजीव ढंग से चित्रण किया गया है । ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है । 

रैदास के पद ( 2 ) 

नरहरि ! चंचल है मति मेरी , कैसे भगति करूँ मैं तेरी । 

तू मोहि देखै , हौँ तोहि देखू , प्रीति परस्पर होई । 

तू मोहि देखे , तोहि न देखू , यह मति सब बुधि खोई । 

सब घट अंतर रमसि निरंतर मैं देखन नहिं जाना । 

गुन सब तोर , मोर सब औगुन , कृत उपकार न माना ॥ 

मैं , तँ तोरि - मोरि असमझि सौं , कैसे करि निस्तारा । 

कहै ' रैदासा ' कृष्ण करुणामय ! जै - जै जगत अधारा ॥ 


कठिन शब्दार्थ - नरहरि = ईश्वर ; चंचल = चलायमान , अस्थिर , एक बात पर न टिकने वाली ; भगति = भक्ति ; परस्पर आपस में ; बुधि = बुद्धि ; घट प्राण , जीव ; रमसि रमण करता है , निवास करता है ; औगुन = अवगुण ; उपकार = भलाई ; कृत = की गयी ; निस्तारा = उद्धार ; जगत - अधारा = संसार के आश्रय स्थल । 

सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यांश ‘ भक्तिधारा ' के ' रैदास के पद ' शीर्षक से लिया गया है । इसके रचयिता रैदास जी हैं । 

प्रसंग - इस पद में भक्त रैदासं भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि हे भगवान् ! मेरी मति चंचल है । फिर चंचल मन से मैं तेरी भक्ति किस प्रकार करूँ ? 

व्याख्या -भक्त रैदास कहते हैं कि हे भगवान् ! मेरी बुद्धि चंचल है , वह किसी भी प्रकार एकाग्र नहीं हो पाती है । बिना एकाग्र हुए मैं तेरी भक्ति कैसे कर पाऊँगा । कहने का भाव यह है कि भक्ति के लिए मन की एकाग्रता बहुत जरूरी है । मैं आपको देखता हूँ और आप मुझे देखते हो इस नाते हम दोनों में आपस में प्रेम हो गया है । तू मुझे देखे और मैं यदि तुझे न देखू तो इस स्थिति में मेरी बुद्धि पथ भ्रमित हो जाती है । 

हे भगवान् ! आप तो घट - घट वासी हैं अर्थात् आप तो प्रत्येक के हृदय में निवास करते हैं फिर भी अपनी अज्ञानता के कारण मैं आपको अपने अन्दर नहीं देख पाता हूँ । हे भगवान् ! आप तो सभी गुणों से पूर्ण हो और मैं अज्ञानी , मूर्ख सभी अवगुणों से पूर्ण हूँ । मैं इतना कृतघ्न हूँ कि आपने मानव जन्म देकर मेरे साथ जो महान् उपकार किया है , मैं उसे भी नहीं जानता हूँ । यह मेरा है , यह तेरा है इसी मैं - मैं , तँ - तें के चक्कर में मेरी बुद्धि भटक गयी है फिर भला बताओ कैसे मेरा उद्धार हो ? भक्त रैदास जी कहते हैं कि भगवान कृष्ण करुणामयी हैं , दयालु हैं उनकी जय - जयकार हो , वे ही वास्तव में जगत् के आधार हैं अर्थात् सम्पूर्ण संसार उन्हीं के ऊपर टिका हुआ है । 

विशेष

( 1 ) रैदास अपनी मति को चंचल मानते हैं । इस चंचल मन में भगवान की भक्ति नहीं हो सकती । 

( 2 ) ईश्वर घट - घट वासी है । 

( 3 ) अन्तिम पंक्ति में अनुप्रास अलंकार है । 

रैदास के पद ( 3 ) 

ऐसी लाल तुझ बिन कउनु करै । 

गरीब निवाजु गुसईंआ मेरा माथै शत्रु धरै । 

जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै । 

नीचह ऊँच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै । 

नामदेव , कबीरु , त्रिलोचन , सधना सैनु तरै । 

कहि रविदास , सुनहु रे संतहु हरि जीउ तै सभै सरै । 


कठिन शब्दार्थ - लाल = यहाँ भगवान , स्वामी के लिए आया है ; कउनु = कौन ; निवाजु = करुणा ; गुसईंया = गोस्वामी , मालिक , ईश्वर ; शत्रु धरै = शत्रुओं को नष्ट करता है ; छोति = छूने भर से ; कउ = को ; सैनु तरै आँखों के इशारे से तार दिया , उद्धार कर दिया ; सभै सरै = सबका कल्याण होता है । 

सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यांश ‘ भक्तिधारा ' के ' रैदास के पद ' शीर्षक से लिया गया है । इसके रचयिता रैदास जी हैं । 

प्रसंग - इस पद में भक्त रैदास कहते हैं कि उस ईश्वर की मर्जी के बिना कुछ भी नहीं हो सकता है । वह चाहे तो सभी जीवों का उद्धार कर दे । 

व्याख्या

भक्त रैदास कहते हैं कि हे लाल ! अर्थात् भगवान ! तुम्हारे बिना हम भक्तों की विपत्तियों का निस्तारण और कौन कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं । हे भगवान ! आप गरीबों पर कृपा करने वाले हो , आप हमारे गोस्वामी अर्थात् मालिक हो । आप मेरा मस्तक हो अर्थात् मैं आपको अपने माथे पर बिठाता हूँ और आप मेरे शत्रुओं को ठिकाने लगाने वाले हो । आप खेल - खेल में ही नीच एवं पतित व्यक्ति को बहुत ऊँचा पद प्रदान कर देते हो । मेरा वह गोविन्द किसी से भी नहीं डरता है । नामदेव , कबीर , त्रिलोचन और सधना आदि भक्तों को उसने अपने नेत्रों के इशारे से ही तार दिया अर्थात् उनका उद्धार कर दिया । सन्त रैदास जी कहते हैं कि हे सन्तो ! सुनो ! भगवान में इतनी शक्ति है कि वह सभी जीवों का उद्धार कर सकते हैं । 

विशेष

( 1 ) इस पद में ' लाल ' भगवान के लिए प्रयुक्त हुआ है ।

( 2 ) रैदास ने भगवान को गरीब निवाज , गोस्वामी आदि कहा है । 

( 3 ) अन्तिम पंक्ति में अनुपास की छटा है । 

पदावली ( मीराबाई ) के पद्यांश की संदर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या

मीराबाई की पदावली ( 1 ) 

पायो जी मैंने राम रतन धन पायौ । 

वस्तु अमोलक दी मेरे सद्गुरु , किरपा करि अपनायौ । 

जनम - जनम की पूँजी पाई , जग में सभी खोवायौ । 

खरचै नहिं कोई चोर न लैवै , दिन - दिन बढ़ती सवायौ । 

सत की नाव खेवटिया सतगुरु , भव सागर तर आयौ । 

मीरा के प्रभु गिरधर नागर , हरख - हरख जस गायौ । 

कठिन शब्दार्थ -

 रतन रत्न ; अमोलक अमूल्य ; किरपा = कृपा ; अपनायौ = अपना लिया , अपना बना लिया ; सवायौ = सवा गुना ; खेवटिया = खेवनहार ; भव सागर = -संसार रूपी समुद्र ; तर आयौ = तार दिया ; गिरधर नागर = गोवर्धन धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ; हरख - हरख = खुश होकर । 

सन्दर्भ -प्रस्तुत पद्यांश 'भक्तिधारा ' के पदावली ' शीर्षक से लिया गया है । इसकी रचयिता मीराबाई हैं ।

प्रसंग - इस पद में कवयित्री मीराबाई रामरत्न रूपी धन को पाकर अपने जीवन को धन्य मानती हैं । 

व्याख्या - मीराबाई कहती हैं कि हे संसारी लोगों ! मैंने राम रत्न रूपी धन पा लिया है । मेरे सद्गुरु ने मुझे यह रामरत्न रूपी धन के रूप में अमूल्य वस्तु प्रदान की है । उस सद्गुरु ने मुझे कृपा करके अपना लिया है , अर्थात् अपना भक्त बना लिया है । इसके माध्यम से मैंने अनेक जन्मों की पूँजी प्राप्त कर ली है कहने का अर्थ यह है कि यह राम रत्न रूपी धन अनेक जन्मों की तपस्या के बाद मुझे प्राप्त हुआ है । मैंने तो यह धन पा लिया है जबकि संसार के अन्य सभी लोग इसे खोते रहते हैं । यह धन अनौखे रूप का है । यह खर्च करने से कम नहीं होता है और न ही चोर इसे चुरा सकते हैं । इसके विपरीत यह नित्य प्रति सवाया होकर बढ़ता रहता है । सत्य की नौका ( नाव ) का खेवनहार सद्गुरु है । वही इस संसार रूपी समुद्र से हमको पार लगायेगा । मीरा के स्वामी तो गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण हैं । मैं खुश होकर उनका यश गाती रहती हूँ । 

विशेष

( 1 ) मीरा भगवान के नाम को सबसे बड़ा धन मानती हैं । तर 

( 2 ) राम रतन धन में रूपक , ' सत की नाव ........तर आयौ ' - में सांगरूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है । 

मीराबाई की पदावली ( 2 )

सुनी हो मैं हरि आवनि की आवाज । 

महले चढ़े चढ़ि जोऊँ सजनी , कब आवै महाराज ॥ 

दादुर मोर पपइया बोलै , कोइल मधुरे साज । 

मग्यो इन्द्र चहूँ दिस बरसे , दामणि छोड़े लाज । 

धरती रूप नवा नवा धरिया , इन्द्र मिलण कै काज । 

मीरों के प्रभु हरि अविनासी , बेग मिलो महाराज ।


कठिन शब्दार्थ - हरि आवनि = भगवान के आने की ; जोऊ देखती हूँ ; सजनी = सखि ; दादुर = दादुर , मेंढक ; पपइया = पपीहा ; कोइल = कोयल ; मग्यो = मग्न होकर , मस्त होकर ; चहूँ दिस चारों दिशाओं में ; दामणि = बिजली ; नवानवा = नया - नया ; अविनाशी = कभी नष्ट न होने वाले , शाश्वत ; वेग = शीघ्र । 

सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यांश भक्तिधारा ' के पदावली ' शीर्षक से लिया गया है । इसकी रचयिता मीराबाई हैं । 

प्रसंग - इस पद में उस समय का वर्णन किया गया है जब मीराबाई को प्रभु के आगमन की आवाज सुनाई दी । 

व्याख्या - मीराबाई कहती हैं कि मैंने प्रभु के आगमन की आवाज सुन ली है । हे सखि ! मैं अपने महलों के ऊपर चढ़ - चढ़कर यह देख रही हूँ कि प्रभु जी हमारे घर कब पधारेंगे ? प्रभु के आगमन की इस शुभ घड़ी पर दादुर ( मेंढक ) , मोर , पपीहा आनन्द में मग्न होकर अपनी बोली बोल रहे हैं । इसी समय कोयल भी मधुर - मधुर बोली बोल रही है । आनन्द से भरकर इन्द्र देवता चारों दिशाओं में वर्षा कर रहे हैं और बिजली भी अपनी लज्जा को छोड़कर बार - बार बादलों में गरज रही है । पृथ्वी पर वर्षा के फलस्वरूप नयी - नयी वनस्पतियाँ उग आयी हैं जिससे पृथ्वी नये - नये रूपों में सजी हुई दिखाई दे रही है । संभवतः पृथ्वी अपनी साज - सज्जा इन्द्र से मिलने के लिए कर रही है । मीराबाई कहती हैं कि हे प्रभु जी ! आपतो अविनाशी हैं अर्थात् शाश्वत् रूप से सदैव विद्यमान रहने वाले हैं । आप कृपा करके मुझ भक्त से जल्दी आकर मिल जाओ । 

विशेष- 

( 1 ) मीरा की प्रभु से मिलने की तीव्र अभिलाषा है ।

( 2 ) चढ़ि - चढ़ि , नवा - नवा में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है । 

मीराबाई की पदावली ( 3 ) 

दरस बिन दूखण लागै नैन । 

अब के तु बिछरे , प्रभु मोरे कबहुँ न पायौ चैन सबद गुणत मेरी छतिया , काँपै मीठे - मीठे बैन । 

कल न परत पल , हरि मग जोवत , भई छमासी रैन ।

बिरह कथा काँसूकहूँ , सजनी वह गयी करवत ऐन । 

मीरों के प्रभु कबहे मिलोगे , दुख मेटण सुखदैन ॥ 

कठिन शब्दार्थ -

 दरस = दर्शन ; दूखण = दुखने लगे ; चैन = शान्ति ; बैन = वचन , बोल ; कल = चैन , शान्ति ; जोवत - देखती रहती हूँ ; छमासी रैन = छ : मास तक निरन्तर अंधकार बना रहा ; काँसू = किससे ; दुख मेटण = दुख नष्ट करने ; करवत = करपत्र अर्थात् आरे की मशीन । 


सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यांश भक्तिधारा ' के पदावली ' शीर्षक से लिया गया है । इसकी रचयिता मीराबाई हैं । 

प्रसंग - मीरा प्रभु के दर्शन न पाकर अत्यधिक बेचैन हो उठती है अत : वह प्रभु से दर्शन देने की विनती कर रही है ।

व्याख्या

मीरा जी कहती हैं कि हे प्रभुजी ! आपके दर्शनों के बिना मेरे नेत्र दुखने लगे हैं । हे प्रभुजी ! जब से आप मुझसे बिछुड़े हैं तब से आज तक मुझे चैन नहीं मिला है । आपके द्वारा बोले गये शब्द मेरी छाती के अन्दर समाये हुए हैं और मेरी । 

मीठी बोली भी अब काँप रही है । मुझे एक पल को भी आपके दर्शन के बिना चैन नहीं मिल रहा है । मैं बार - बार आपके आने का मार्ग देखती रहती हूँ । मेरे लिए यह वियोग ( बिछोह ) की अवधि छः महीने की रात के बराबर हो गयी है । हे सखि ! मैं अपनी इस विरह व्यथा को किससे कहूँ वह तो मेरे लिए आरे की मशीन के समान कष्ट देने वाली हो गयी है । कहने का अर्थ यह है कि जिस प्रकार कोई योगी अपने शरीर को आरे से चिरा कर मोक्ष प्राप्त करने में जितना कष्ट पाता है वैसा ही कष्ट प्रभुजी के दर्शन के बिना मुझे हो रहा है । मीरा जी कहती हैं कि हे प्रभु जी ! मेरी इस वियोग दशा को दूर करने तथा सुख देने के लिए आप कब दर्शन देंगे ? अर्थात् आप शीघ्र ही मुझे दर्शन प्रदान करें । 

विशेष

( 1 ) कथा काँसू कहूँ ' में अनुप्रास अलंकार है । 

( 2 ) वियोग शृंगार का वर्णन है । 

भक्तिधारा अभ्यास बोध प्रश्न :

भक्तिधारा के अति लघु उत्तरीय प्रश्न उत्तर


प्रश्न 1. रैदास की प्रभु भक्ति किस भाव की है ? 

उत्तर - दास्य ( सेवक ) भाव की । 


प्रश्न 2. रैदास ने प्रभु से अपना सम्बन्ध किस रूप में निरूपित किया है ? 

उत्तर - रैदास ने प्रभु से अपना सम्बन्ध चन्दन और पानी के रूप में निरूपित किया है । 


प्रश्न 3. मीराबाई को कौन - सा रत्न प्राप्त हुआ था ? 

उत्तर - मीराबाई को ' राम नाम रूपी रत्न ' प्राप्त हुआ था । 


प्रश्न 4. मीरा कहाँ चढ़कर प्रभु की बाट देख रही है ? 

उत्तर - मीरा अपने महल पर चढ़कर प्रभु की बाट देख रही है ।


प्रश्न 5. मीरा के नेत्र क्यों दुःखने लगे हैं ? 

उत्तर- प्रभु के दर्शन के बिना मीरा के नेत्र दु : खने लगे हैं । 


भक्तिधारा के लघु उत्तरीय प्रश्न उत्तर:


प्रश्न 1. रैदास ने बुद्धि को चंचल क्यों कहा है ? 

उत्तर - रैदास ने बुद्धि को चंचल इसलिए कहा है कि यद्यपि आप सबके घट - घट में निवास करने वाले हो तब भी मैं अपनी इस चंचल बुद्धि के कारण आपको देख नहीं पाता हूँ । 


प्रश्न 2. ' जाकी छोति जगत कउलागे ता पर तुही ढरै ' - से रैदास का क्या तात्पर्य है ? 

उत्तर - इस पंक्ति से रैदास का तात्पर्य यह है कि जिस प्रभु के छूने मात्र से जगत् का कल्याण हो जाता है , हे मूर्ख जीव ! तू उसी करुणामय भगवान से दूर भागता है ।


प्रश्न 3. मीरा ने संसार रूपी सागर को पार करने के लिए क्या उपाय बताया है ? 

उत्तर - मीरा ने संसार रूपी सागर को पार करने का एक ही उपाय बताया है और वह है , सद्गुरु का सच्चे मन से स्मरण । 


प्रश्न 4. रैदास एवं मीरा की भक्ति की तुलना कीजिए । 

उत्तर - रैदास की भक्ति निर्गुण निराकार ईश्वर की है जबकि मीरा की भक्ति सगुण साकार कृष्ण की भक्ति है । 


प्रश्न 5. ' प्रेम - बेलि ' के रूपक को स्पष्ट कीजिए । 

उत्तर - ' प्रेम - बेलि ' को मीरा ने विरह से उत्पन्न हुए आँसुओं के जल से निरन्तर सींचते हुए पल्लवित किया है । अब तो यह प्रेम - बेलि बहुत अधिक विकसित हो गई है और चारों ओर फैल गई है । अब यह आशा लग रही है कि इस बेल पर प्रियतम - मिलन से उत्पन्न हुए आनन्द रूपी फल आने शुरू होंगे । इस तरह विरह का अपार कष्ट दूर हो जाएगा ; तो निश्चय ही प्रियतमा ( भक्त मीरा ) का मिलन आराध्य श्रीकृष्ण से हो जाएगा । प्रियतम श्रीकृष्ण के प्रति मीरा का प्रेम एक लता ( बेल ) है । प्रस्तुत प्रसंग में प्रेम उपमेय है और बेल आगमन रूप में प्रयुक्त है।

भक्तिधारा के दीर्घ उत्तरीय प्रश्न उत्तर:


प्रश्न 1. मीरा को रामरतन धन प्राप्त होने से क्या - क्या लाभ प्राप्त हुए हैं ? 

उत्तर - मीरा को रामरतन धन प्राप्त होने से जन्म - जन्मान्तर से खोई हुई पूँजी प्राप्त हो गई और यह पूँजी ऐसी विलक्षण है कि न तो यह खर्च होती है और न ही चोर इसको चुराकर ले जाते हैं अपितु यह तो नित्य सवा गुनी होकर बढ़ती ही रहती है । 


प्रश्न 2. प्रभु दर्शन के बिना मीरा की कैसी दशा हो गई है ? 

उत्तर - प्रभु दर्शन के बिना मीरा के नेत्र दुखने लगे । उनके शब्द उसकी छाती में बार - बार सुनाई पड़ रहे हैं और उसकी वाणी उनका स्मरण कर काँपने लगी है । वह प्रतिक्षण प्रभु की बाट जोहती रहती है , प्रभु के बिना उसे चैन ही नहीं पड़ता है । 


प्रश्न 3. " रैदास के पदों में भक्ति भाव भरा हुआ है । " स्पष्ट कीजिए । 

उत्तर: रैदास के पदों में भक्ति भाव भरा हुआ है । वह भगवान को गरीब निवाज एवं गुसाईं बताते हैं । उनकी मान्यता है कि भगवान की कृपा से नीच व्यक्ति उच्च पद को प्राप्त कर लेता है । इतनी बड़ी कृपा भगवान के अतिरिक्त और कौन कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं । 


प्रश्न 4. भक्त और भगवान के सम्बन्ध में रैदास ने अलग - अलग क्या भाव व्यक्त किए हैं ? स्पष्ट कीजिए । 

उत्तर - रैदास ने भक्त और भगवान के सम्बन्ध में कहा है - वह प्रभु को चन्दन बताते हैं तो स्वयं को पानी । इसी पानी के साथ घिस - घिसकर वह चन्दन की सुगन्ध को प्राप्त करना चाहते हैं । वह भगवान को घन मानते हैं तो स्वयं को बादल , वह भगवान को दीपक तो अपने को उसकी बाती , भगवान को मोती तो स्वयं को धागा , भगवान को स्वामी तो अपने को दास मानते हैं । 

 भक्तिधारा पाठ का काव्य सौन्दर्य 

भक्तिधारा पाठ के शब्दों के हिन्दी मानक रूप लिखिए 

औगुन का हिन्दी मानक रूप : अवगुण 

कअनु का हिन्दी मानक रूप : कौन 

गुसईया का हिन्दी मानक रूप : गुसाईं , गोस्वामी 

माथे का हिन्दी मानक रूप : मस्तक 

किरपा का हिन्दी मानक रूप : कृपा 

हरख का हिन्दी मानक रूप : हर्ष 

जस का हिन्दी मानक रूप : यश 

सुगत का हिन्दी मानक रूप : सुगति 

कोइल का हिन्दी मानक रूप : कोयल 


पर्यायवाची शब्द :

मोर के तीन पर्यायवाची शब्द - मयूर , सारंग , केकी । 

कोयल के तीन पर्यायवाची शब्द - पिक , कोकिल , स्यामा । 

इन्द्र के तीन पर्यायवाची शब्द - सुरेश , सुरेन्द्र , देवेश । 

चन्द्र के तीन पर्यायवाची शब्द - विधु , शशि , राकेश । 

ईश्वर के तीन पर्यायवाची शब्द - भगवान , प्रभु , परमात्मा । 

नैन के तीन पर्यायवाची शब्द - नेत्र , चक्षु , अक्षि । 

इन पंक्तियों कौन सा अलंकार है । 

( i ) कह ' रैदासा ' कृष्ण करुणामय ! जै - जै जगत - अधारा । 

उत्तर:  अनुप्रास

( ii ) कहि रविदास सुनहु रे संतहुँ हरि जीउ ते सभै सटै ।

उत्तर:  अनुप्रास

( iii ) बिरह कथा काँसू कहूँ सजनी वह गयी करवत ऐन ।

उत्तर:  अनुप्रास


निम्नलिखित पंक्तियों में अलंकार पहचान कर लिखिए । 


( क ) पायो जी मैंने राम रतन धन पायो । 

उत्तर- ( क ) रूपक अलंकार , 


( ख ) मै , तँ तोरि , मोरि असमझि सौं कैसे करि निस्तारा । 

उत्तर- ( ख ) अनुप्रास अलंकार,


( ग ) सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो । 

उत्तर- ( ग ) रूपक अलंकार


'दरस बिन दूखण लागे नैन ' – पद में प्रयुक्त रस और स्थायी भाव का नाम लिखिए । 

उत्तर - इस पद में वियोग शृंगार नामक रस है तथा इसका स्थायी भाव ' रति ' है । 

भक्तिधारा पाठ की पंक्तियों का भाव सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए 


तूं मोहि देखै , हौं तोहि देखू , प्रीति परस्पर होई । पंक्ति का भाव सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए 

उत्तर: भक्त कवि रैदास परमात्मा ( तू ) तत्व को सर्वद्रष्टा और आत्मा ( हौं ) को एक ही तत्व में देखते हैं । परन्तु जगत में भौतिक बुद्ध प्रभाव से उनके एकत्व में भी विभेद उत्पन्न हो गया है । परमात्मा और जीवात्मा सम्बन्धी एकरूपता के भाव की हानि भक्त को बौद्धिक भ्रम से हो गई है । कबीर ने भी परमात्मा रूपी प्रियतम को प्रियतमा ने अपने नयनों के बीच स्थान देकर दुनिया के द्वारा न देखे जाने की बात कही है । कवि का यह रहस्यवाद अभी भी लोगों को चमत्कृत करता है ।

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती , जाकी जोति बरै दिन राती ।  पंक्ति का भाव सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए 

उत्तर:  ईश्वरीय ज्ञान की ज्योति भक्त को उत्तम भक्ति मार्ग को दिखाती है । उस दशा में भक्त अपने मार्ग से इधर - उधर नहीं भटकता । अतः ईश्वर ज्ञान ज्योति के भण्डार रूपी दीपक के समान है जिसमें जीवात्मा की बत्ती निरन्तर प्रज्ज्वलित होती रहती है और अपने अस्तित्व को मिटाकर पूर्ण समर्पण से , स्नेह भाव से सम्पृक्त हो उठती है और वह जीवात्मा स्नेह ( तैल ) , ज्ञान और तप के बल से भक्त स्वरूप को प्राप्त हो जाता है ।

खरचै नहिं कोई चोर न लेवै दिन - दिन बढ़त सवायौ । पंक्ति का भाव सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए 

उत्तर- भक्त मीरा ' रामरतन धन ' को प्राप्त करके परम सुख की अनुभूति करती है । उन्होंने सांसारिक सम्पदा का त्याग कर दिया और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति को स्वीकार किया । यह भक्ति रूपी धन कभी भी नष्ट न होने वाला है । यह कितना ही खर्च किया जाए , फिर भी खर्च नहीं होता है । कोई भी चोर इसे चुरा नहीं सकता , क्योंकि यह अदृश्य भाव से विद्यमान है । प्रभु भक्ति से ' राम नाम ' का धन सवाये रूप से निरन्तर बढ़ता ही जाता है । 

मीरा का ' रामरतन धन ' अमूल्य है , अलौकिक है । अक्षुण्ण है अर्थात् परमात्मा अविनाशी है , सर्वव्यापी है और सर्व तथा समद्रष्टा है । आराध्य के प्रति भक्त का समर्पण स्तुत्य है , महत्वपूर्ण है । 


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