MP Board Class 10th Hindi Book Navneet Solutions पद्य Chapter 4 नीति-धारा

MP Board Class 10th Hindi Book Navneet Solutions पद्य Chapter 4 नीति-धारा

नमस्कार दोस्तों ! इस पोस्ट में हमने MP Board Class 10th Hindi Book Navneet Solutions पद्य Chapter 4 नीति-धारा के सभी प्रश्न का उत्तर सहित हल प्रस्तुत किया है। हमे आशा है कि यह आपके लिए उपयोगी साबित होगा। आइये शुरू करते हैं।

MP Board Class 10th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 4 नीति-धारा

नीति-धारा अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. गिरिधर के अनुसार हमें क्या भूल जाना चाहिए?T

उत्तर: गिरिधर के अनुसार हमें बीती हुई बातों को भूल जाना चाहिए।
 

प्रश्न 2. कोयल को उसके किस गुण के कारण पसन्द किया जाता है?

उत्तर: कोयल को उसकी मीठी वाणी के गुण के कारण पसन्द किया जाता है।
 

प्रश्न 3. गिरिधर द्वारा प्रयुक्त छन्द का नाम लिखिए।

उत्तर: गिरिधर द्वारा प्रयुक्त छन्द का नाम कुण्डलियाँ है।
 

प्रश्न 4. व्यक्ति सम्मान योग्य कब बन जाता है?

उत्तर: व्यक्ति जब परोपकार की भावना से कार्य करता है तो वह सम्मान के योग्य बन जाता है।
 

प्रश्न 5. भारतेन्दु के अनुसार भारत की दुर्दशा का प्रमुख कारण क्या है?

उत्तर: भारतेन्दु के अनुसार भारत की दुर्दशा का प्रमुख कारण आपस में बैर और फूट की भावना का होना है।


नीति-धारा लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. कवि गिरिधर के अनुसार मन की बात को कब तक प्रकट नहीं करना चाहिए?

उत्तर: कवि गिरिधर के अनुसार मन की बात को तब तक प्रकट नहीं करना चाहिए जब तक कि किसी कार्य में सफलता न मिल जाए।
 

प्रश्न 2. धन-दौलत का अभिमान क्यों नहीं करना चाहिए?

उत्तर:धन-दौलत का अभिमान इसलिए नहीं करना चाहिए क्योंकि यह धन-दौलत सदा एक के साथ नहीं रहती है, अपितु यह चंचल एवं स्थान बदलने वाली है।


प्रश्न 3. कवि ने गुणवान के महत्व को किस प्रकार रेखांकित किया है?

उत्तर: कवि ने गुणवान के महत्त्व को इस प्रकार रेखांकित किया है कि गणी व्यक्ति के चाहने वाले हजारों व्यक्ति मिल जाते हैं पर निर्गुण का साथ तो घरवाले भी नहीं दे पाते।
 

प्रश्न 4. भारतेन्दु ने कोरे ज्ञान का परित्याग करने की सलाह क्यों दी है?

उत्तर: भारतेन्दु ने कोरे ज्ञान का परित्याग करने की सलाह है इसलिए दी है कि कोरे ज्ञान से कोई काम या व्यापार चल नहीं सकता है। इनको चलाने के लिए उनमें डूबना पड़ता है।
 

प्रश्न 5. सम्माननीय होने के लिए किन गुणों का होना आवश्यक है?

उत्तर: सम्माननीय होने के लिए व्यक्ति को परोपकारी होना चाहिए; कोरे पद से काम नहीं चलता है।
 

प्रश्न 6. ‘उठहु छोड़ि विसराम का आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:उठहु छोड़ि विसराम का आशय यह कि तुम विश्राम त्यागकर उस निर्गुण निराकर ईश्वर को पूरी तरह अपना लो।
 

नीति-धारा दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. बिना विचारे काम करने में क्या हानि होती है? समझाइए।

उत्तर:जो व्यक्ति बिना विचारे अपना कोई काम करता है, तो उस काम में उसे सफलता नहीं मिलती है। इससे जहाँ उसका काम बिगड़ जाता है वहीं संसार में उसकी हँसी भी उड़ती है।
 

प्रश्न 2. कौआ और कोयल के उदाहरण से कवि जो सन्देश देना चाहता है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर: कौआ और कोयल के उदाहरण द्वारा कवि यह सन्देश देना चाहता है कि संसार में व्यक्ति की प्रतिष्ठा उसके रूप-रंग से नहीं अपितु गुणों से होती है।
 

प्रश्न 3. पाठ में संकलित भाषा सम्बन्धी दोहों के माध्यम से भारतेन्दु जी क्या सन्देश देना चाहते हैं?

उत्तर: पाठ में संकलित भाषा सम्बन्धी दोहों के माध्यम से भारतेन्दु जी यह सन्देश देना चाहते हैं कि किसी भी देश की उन्नति उसकी मातृ भाषा के विकास द्वारा ही सम्भव है।
 

प्रश्न 4. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की काव्य प्रतिभा पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।

उत्तर: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र बहु आयामी रचनाकार हैं। उन्होंने नाटक, काव्य, निबन्ध आदि सभी विधाओं पर लेखनी चलाई है। वे समाजोन्मुखी चिन्तक कवि हैं, इसलिए उनकी कविताओं में नीति कथन सर्वत्र मिलते हैं। आपने परोपकार एवं एकता को विशेष महत्त्व प्रदान किया है।
 

प्रश्न 5. निम्नलिखित पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-

(अ) बिना विचारे जो करे सो पाछे पछिताय।

………………………….          ……………………..

…………………………..         ………………………

खटकत है जिय माँहि, कियौ जो बिना विचारे॥

उत्तर: गिरिधर कवि जी कहते हैं कि बिना सोच और विचार के जो कोई भी व्यक्ति काम करता है, वह बाद में पछताता है। ऐसा करने से एक तो उसका काम बिगड़ जाता है, दूसरे संसार में उसकी हँसी होती है अर्थात् सब लोग उसका मजाक उड़ाते हैं। संसार में हँसी होने के साथ ही साथ उसके स्वयं के मन में शान्ति नहीं रहती है, वह परेशान हो जाता है। खाना-पीना, सम्मान, राग-रंग आदि कोई भी बात उसे अच्छी नहीं लगती है।

गिरिधर कवि जी कहते हैं कि इससे उत्पन्न दुःख टालने पर भी टलता नहीं है अर्थात् भगाने पर भी भागता नहीं है और सदा ही यह बात मन में खटकती रहती है कि बिना सोच-विचार के करने से मुझे यह मुसीबत झेलनी पड़ रही है।
 

(ब) गुन के गाहक सहस नर, बिनु गुन लहै न कोय।

……………………          ……………………..

……………………         ……………………….

बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के॥

उत्तर: कविवर गिरिधर कहते हैं कि इस संसार में गुणों के ग्राहक तो हजारों लोग हैं, लेकिन बिना गुणों के किसी भी व्यक्ति को कोई नहीं चाहता है। उदाहरण देकर कवि समझाता है कि कौआ और कोयल दोनों का रंग एक जैसा होता है पर दोनों की वोशी में जमीन-आसमान का अन्तर होता है।

जब संसारी लोग इन दोनों की वाणी को सुनते हैं तो कोयल की वाणी सबको प्रिय लगती है और कौए की नहीं। इस कारण कोयल को सब प्यार करते हैं और कौओं से परहेज करते हैं।

गिरिधर कवि जी कहते हैं कि हे मनुष्यो! कान लगाकर सुन लो इस संसार में बिना गुणों के कोई किसी को पूछता तक नहीं है। इस संसार में गुणों के ग्राहक तो हजारों होते हैं

, निर्गुण का ग्राहक कोई नहीं।

(स) मान्य योग्य नहिं होत, कोऊ कोरो पद पाए।

मान्य योग्य नर ते, जे केवल परहित जाए॥

उत्तर: कवि श्री भारतेन्दु जी कहते हैं कि इस संसार में कोरा पद पाकर ही कोई व्यक्ति समाज में माननीय नहीं हो सकता। समाज में माननीय वही व्यक्ति होता है, जो परोपकार की भावना से कार्य करता है।
 

(द) बैर फूट ही सों भयो, सब भारत को नास।

तबहुँन छाड़त याहि सब, बँधे मोह के फाँस॥

उत्तर: कविवर भारतेन्दु जी कहते हैं कि इस देश, भारत का पूरी तरह से नाश आपसी बैर एवं फूट के कारण ही हुआ है। यह सच्चाई मानते हुए भी आज भी भारतवासी लोग मोह के फन्दे में ऐसे बँधे हुए हैं कि इस बुरी भावना का त्याग नहीं करते हैं।


नीति-धारा काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1. ‘उल्लाला को परिभाषित करते हुए उदाहरण सहित समझाइए।

उत्तर:उल्लाला’-परिभाषा-उल्लाला एक मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में 15-15 मात्राएँ और दूसरे एवं चौथे चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। कुल 28 मात्राएँ होती हैं।

उदाहरण :

करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।

हे मातृभूमि तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥


MCQ

प्रश्न 1. गिरिधर के अनुसार हमें क्या भूल जाना चाहिए?

(क) कल की बात     (ख) बरसों की बातें    (ग) आज की बात    (घ) बीती हुई बातें।

उत्तर: (घ) बीती हुई बातें।

प्रश्न 2. कोयल को उसके किस गुण के कारण पसन्द किया जाता है?

(क) रंग    (ख) आकृति    (ग) नृत्य    (घ) मधुर बोली।

उत्तर: (घ) बीती हुई बातें।

प्रश्न 3. भारतेन्दु के अनुसार भारत की दुर्दशा का प्रमुख कारण क्या है?

(क) अन्धविश्वास    (ख) अज्ञानता    (ग) विद्या की कमी    (घ) बैर-फूट।

उत्तर: (घ) बीती हुई बातें।

प्रश्न 4. बिना विचारे काम करने में क्या हानि होती है?

(क) धन की    (ख) मर्यादा की    (ग) मान की    (घ) पछताना पड़ता है।

उत्तर: (घ) बीती हुई बातें।


रिक्त स्थानों की पूर्ति

  1. सम्पत्ति के बढ़ने पर …………. नहीं करना चाहिए।
  2. गिरिधर कवि ने कहा है कि हमें अपने किये …………. ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिए।
  3. भारतेन्दु जी ने भारत के विकास के लिए भारतवासियों को ………… छोड़ने को कहा।
  4. बैर-फूट ही सों भयो सब भारत को ………..
  5. नीतिकाव्य जीवन-व्यवहार को ………. बनाने का आधार है।

उत्तर:

  1. अभिमान
  2. कामों का
  3. बैर-भाव
  4. नाश
  5. सुगम

सत्य/असत्य

  1. गिरिधर के अनुसार हमें बीती बातें भूल जानी चाहिए।
  2. दौलत पाकर व्यक्ति को सदैव अभिमान करना चाहिए।
  3. कोकिल वायस एक सम पण्डित मूरख एक। यह पंक्ति गिरिधर कवि की कुण्डलियों में
  4. भारतेन्दु जी ने भाषा के द्वारा राष्ट्र की उन्नति व एकता बतायी है।

उत्तर:

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. असत्य
  4. सत्य

सही जोड़ी मिलाइए

(i)

(ii)


1.
गिरिधर कवि के सबसे बड़े संग्रह में

2. दौलत पाय न कीजिए

3. निज भाषा उन्नति करहु

4. कोयल


(
क) मधुर स्वर

(ख) प्रथम जो सबको मूल

(ग) सपने में अभिमान

(घ) 457 कुण्डलियाँ हैं

उत्तर:

1. → (घ)

2. → (ग)

3. → (ख)

4. → (क)

एक शब्द/वाक्य में उत्तर

(i) बिना विचारे कार्य करने से क्या होता है

(ii) काग और कोकिल में से किसका शब्द सुहावना लगता है?

(iii) “कोरी बातन काम कछु चलिहैं नाहिन मीत।

तासों उठि मिलि के करहु बेग परस्पर प्रीत॥ दोहा किस कवि का है?

(iv) गिरिधर कवि किस प्रकार के रचनाकारों की श्रेणी में आते हैं?

उत्तर:

  1. पछताना पड़ता है
  2. कोकिल का
  3. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
  4. नीतिकाव्य के रचनाकार।

गिरिधर की कुण्डलियाँ भाव सारांश

गिरिधर की कुण्डलियों में नीति के उपदेश देते हुए कहा गया है कि मनुष्य को बीती बातें भुलाकर भविष्य के विषय में विचार करना चाहिए। मनुष्य को अपना कार्य सम्पन्न होने से पूर्व किसी को नहीं बतलाना चाहिए। जो व्यक्ति बिना सोच-विचार के कार्य करता है उसके पास पछताने के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता। धन पाकर मनुष्य को गर्व नहीं करना चाहिए। मनुष्य को अपने अन्दर गुणों का संग्रह करना चाहिए। इस संसार में गुणवान को सम्मान मिलता है और गुणहीन व्यक्ति उपेक्षा और तिरस्कार का पात्र बनता है।


गिरिधर की कुण्डलियाँ संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) बीती ताहि विसार दे, आगे की सुधि लेइ।

जो बनि आवै सहज में, ताही में चित्त देइ॥

ताही में चित्त देइ, बात जोई बनि आवै।

दुर्जन हँसे न कोइ, चित्त में खता न पावै॥

कह गिरिधर कविराय, यहै करु मन-परतीती।

आगे की सुख समुझि, हो बीती सो बीती॥

शब्दार्थ :

बीती = जो बात हो गयी है। ताहि = उसी को। विसारि दे = भूल जाओ। सुधि लेइ = ध्यान में रखो। सहज = सरल रूप में। चित्त देइ = मन लगाओ। दुर्जन = दुष्ट लोग। खता = गलती, भूल। परतीती = प्रतीति, विश्वास। बीती सो बीती = जो बीत गई सो बीत गई।

सन्दर्भ :

प्रस्तुत कुण्डली कविवर गिरिधर द्वारा रचित गिरिधर की कुण्डलियाँ से ली गई है।

प्रसंग :

इसमें कवि ने व्यावहारिक जीवन की यह बात बताई है कि बुद्धिमान व्यक्ति वही होता है जो बीती हुई बात को भुलाकर आगे के लिए सचेत रहता है।

व्याख्या :

गिरिधर कवि जी कहते हैं हे मनुष्यो! जो बात घटित हो चुकी है उसके बारे में व्यर्थ में सोच-विचार कर समय को बर्बाद मत करो। तुम आगे होनी वाली बातों या घटनाओं की चिन्ता करो जो कुछ भी तुमसे सहज, सरल रूप में बन जाये उसी में अपना मन लगाओ। ऐसा करने पर कोई भी दुष्ट व्यक्ति तुम्हारी बातों की हँसी नहीं उड़ाएगा और न ही तुम्हारे मन में कोई खोट रहेगा।

गिरिधर कवि जी कहते हैं कि हे मनुष्यो! तुम अपने मन में यह विश्वास रखो कि आने वाली बातों या घटनाओं में तुम पूरी सावधानी बरतो और जो हो गई, सो हो गई।

विशेष :

  1. कवि ने व्यावहारिक जीवन की बात बताई है।
  2. अवधी भाषा का प्रयोग।
  3. कुण्डलियाँ-छन्द।

(2) साईं अपने चित्त की, भूलि न कहिए कोई।

तब लग मन में राखिए, जब लग कराज होइ॥

जब लम कारज होइ, भूलि कबहूँ नहिं कहिए।

दुरजन हँसे न कोई, आप सियरे है रहिए॥

कह गिरिधर कविराय, बात चतुरन की ताईं।

करतूती कहि देत, आप कहिए नहिं साईं॥

शब्दार्थ :

साईं = मित्र। तब लग = तब तक। जब लग = जब तक। कारज न होइ = काम में सफलता प्राप्त न हो जाए। दुरजन = दुष्ट लोग। सियरे = शीतल, प्रसन्न। खै रहिए = होकर रहिए। करतूती = काम।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

इस छन्द में कवि ने मनुष्यों को शिक्षा दी है कि यदि आप कोई काम करने की योजना बनाते हैं तो उसे प्रारम्भ करने से पूर्व जग जाहिर मत करो। नहीं तो दुष्ट लोग तुम्हारे उस शुभ कार्य में बाधा डालेंगे।

व्याख्या :

कविवर गिरिधर कहते हैं कि हे मित्र! अपने मन की बात भूलकर भी किसी दूसरे से मत कहो। उस बात को अपने मन में तब तक दाब कर रखो जब तक कि आपका काम न हो जाए। जब तक आपका काम नहीं होता, भूल कर भी किसी से मत कहो। यह ऐसी नीति है कि इसमें दुर्जन लोगों को हँसी उड़ाने का अवसर नहीं मिलेगा और स्वयं आपके चित्त को शान्ति एवं आनन्द मिलेगा।

गिरिधर कवि जी कहते हैं कि यह बात मैंने चतुर लोगों के लिए कही है। हे मित्र! तुम अपने मुँह से कोई बात मत कहो। तुम्हारे काम स्वयं तुम्हारी बात को सबसे कह देंगे।

विशेष :

  1. कवि ने व्यावहारिक जीवन की बात बताई है।
  2. भाषा-अवधी।
  3. छन्द-कुण्डलियाँ।


(3) बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछिताय।

काम बिगारै आपनो, जग में होत हँसाय॥

जग में होत हँसाय, चित्त में चैन न पावै।

खान-पान सनमान, राग-रंग मनहिं न भावै॥

कह गिरिधर कविराय, दुःख कछु टरत न टारे।

खटकत है जिय माँहि, कियो जो बिना बिचारे।

शब्दार्थ :

बिना विचारे = बिना सोचे-समझे। बिगारे = बिगाड़ना। जग = संसार में। होत हँसाय = हँसी उड़ती है। चैन = शान्ति। टरत नटारे = टालने पर भी नहीं टलता है, भागता है। माँहि = में।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग

इस छन्द में कवि कहता है कि मनुष्य को बिना सोचे-समझे कोई काम नहीं करना चाहिए।

व्याख्या :

गिरिधर कवि जी कहते हैं कि बिना सोच और विचार के जो कोई भी व्यक्ति काम करता है, वह बाद में पछताता है। ऐसा करने से एक तो उसका काम बिगड़ जाता है, दूसरे संसार में उसकी हँसी होती है अर्थात् सब लोग उसका मजाक उड़ाते हैं। संसार में हँसी होने के साथ ही साथ उसके स्वयं के मन में शान्ति नहीं रहती है, वह परेशान हो जाता है। खाना-पीना, सम्मान, राग-रंग आदि कोई भी बात उसे अच्छी नहीं लगती है।

गिरिधर कवि जी कहते हैं कि इससे उत्पन्न दुःख टालने पर भी टलता नहीं है अर्थात् भगाने पर भी भागता नहीं है और सदा ही यह बात मन में खटकती रहती है कि बिना सोच-विचार के करने से मुझे यह मुसीबत झेलनी पड़ रही है।

विशेष :

  1. टरत न टारे मुहावरे का सुन्दर प्रयोग।
  2. अवधी-भाषा।
  3. कुण्डलियाँ-छन्द।


(4) दौलत पाय न कीजिए, सपने में अभिमान।

चंचल जल दिन चारि को, ठाउँ न रहत निदान॥

ठाउँ न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै।

मीठे बचन सुनाय, विनय सबही की कीजै॥

कह गिरिधर कविराय, अरे यह सब घट तौलत।

पाहुन निसि दिन चारि, रहत सबही के दौलत॥

शब्दार्थ :

दौलत = धन सम्पत्ति। अभिमान = घमण्ड। चंचल जल = बहते हुए पानी के समान। दिन चारि को = चार दिन को अर्थात् बहुत थोड़े समय के लिए। ठाउँ न रहत निदान = एक स्थान पर सदा रुकी नहीं रहती है। जियत = जब तक जीवित हो। जस = यश। विनय = विनम्रता। घट तौलत = घट-घट को तौलने वाली, हर मनुष्य को परखने वाली। पाहुन = अतिथि, मेहमान।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग

कवि ने धन के ऊपर गर्व न करने की मनुष्य को सलाह दी है।

व्याख्या :

कविवर गिरिधर कहते हैं कि हे संसार के मनुष्यो! धन-दौलत पाकर सपने में भी घमण्ड मत करो। यह धन-दौलत जल के समान चंचल है अर्थात् यह कभी भी एक स्थान पर टिककर नहीं रहती है। चार दिन के लिए अर्थात् बहुत थोड़े समय के लिए यह किसी व्यक्ति के पास रहती है। स्थायी रूप से यह किसी व्यक्ति के पास नहीं रहती है। इसीलिए विद्वानों ने इसे चंचला कहा है। हे मनुष्यो! संसार में आये हो तो ऐसे काम करो जिससे जीवन में यश मिले। सभी से मीठे वचन बोलो तथा सभी के साथ विनम्रता से मिलो।

गिरिधर कवि जी कहते हैं कि दौलत मनुष्यों को तौलती फिरती है। यह केवल चार दिन के लिए अर्थात् थोड़े समय के लिए ही किसी के घर मेहमान बनकर आती है।

विशेष :

  1. धन पर मनुष्य को गर्व नहीं करना चाहिए।
  2. दिन चारि, ठाउँ न रहत निदान, सब घट तौलत आदि मुहावरों का सुन्दर प्रयोग।
  3. भाषा-अवधी।

(5) गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय।

जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय॥

शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सहावन।

दोऊ को इक रंग, काग सब भए अपावन॥

कह गिरिधर कविराय, सुनो हो ठाकुर मन के।

बिन गुन लहै न कोय, सहस नर ग्राहक गुन के॥

शब्दार्थ :

गुण = गुणों के। सहस नर = हजारों आदमी। लहै = प्राप्त करना। अपावन = अपवित्र।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग

कवि कहता है कि संसार में गुणों का ही महत्त्व है; बिना गुण के कोई किसी को नहीं पूछता है।

व्याख्या :

कविवर गिरिधर कहते हैं कि इस संसार में गुणों के ग्राहक तो हजारों लोग हैं, लेकिन बिना गुणों के किसी भी व्यक्ति को कोई नहीं चाहता है। उदाहरण देकर कवि समझाता है कि कौआ और कोयल दोनों का रंग एक जैसा होता है पर दोनों की वोशी में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। जब संसारी लोग इन दोनों की वाणी को सुनते हैं तो कोयल की वाणी सबको प्रिय लगती है और कौए की नहीं। इस कारण कोयल को सब प्यार करते हैं और कौओं से परहेज करते हैं।

गिरिधर कवि जी कहते हैं कि हे मनुष्यो! कान लगाकर सुन लो इस संसार में बिना गुणों के कोई किसी को पूछता तक नहीं है। इस संसार में गुणों के ग्राहक तो हजारों होते हैं, निर्गुण का ग्राहक कोई नहीं।

विशेष :

  1. कवि ने मनुष्यों को गुणों को ग्रहण करने का सन्देश दिया है।
  2. भाषा-अवधी।
  3. छन्द-कुण्डलियाँ।

नीति अष्टक भाव सारांश

नीति अष्टक दोहों में बतलाया गया है कि वही व्यक्ति इस संसार में माननीय है जो दूसरों के कल्याण के लिए जीवन जीता है। भारत देश का विनाश लोगों की बैर भावना के कारण ही हुआ। इसलिए इसे मन से निकाल देना चाहिए। अपनी भाषा, अपने धर्म,अपने कर्म पर हमें गर्व होना चाहिए। उस बुरे देश में किसी को निवास नहीं करना चाहिए जहाँ मूर्ख और विद्वान सबको एक ही भाँति का समझा जाता हो।


नीति अष्टक संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र मान्य योग्य नहीं होत, कोऊ कोरो पद पाए।

मान्य योग्य नर ते, जे केवल परहित जाए॥ (1)

शब्दार्थ :

मान्य योग्य = सम्मान के योग्य। होत = होता है। कोरो पद = केवल पद पाने से। परहित = परोपकार में।

सन्दर्भ :

प्रस्तुत पद्य भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित नीति अष्टक शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग :

इसमें कवि ने बताया है कि जो व्यक्ति परोपकार में रत रहते हैं, समाज उन्हीं का आदर करता है।

व्याख्या :

कवि श्री भारतेन्दु जी कहते हैं कि इस संसार में कोरा पद पाकर ही कोई व्यक्ति समाज में माननीय नहीं हो सकता। समाज में माननीय वही व्यक्ति होता है, जो परोपकार की भावना से कार्य करता है।

विशेष :

  1. कवि की दृष्टि में केवल परोपकार भावना में रत व्यक्ति ही समाज में सम्मान पाता है, न कि पद से।
  2. दोहा-छन्द।


बिना एक जिय के भए, चलिहैं अब नहिं काम।

तासों कोरो ज्ञान तजि, उठहु छोड़ि बिसराम॥ (2)

शब्दार्थ :

एक जिय = एक रूप हुए। कोरो ज्ञान = केवल ज्ञान, समर्पण नहीं। विसराम = आराम।

सन्दर्भ :

प्रस्तुत पद्य भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित नीति’ अष्टक’ शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग :

कवि कहता है कि जब तक ईश्वर के प्रति पूर्ण सेमर्पण नहीं होगा, जीव का उद्धार नहीं होगा।

व्याख्या :

कविवर भारतेन्द जी कहते हैं कि भगवान के प्रति पूर्ण भाव से समर्पण किए बिना अब काम चलने वाला नहीं है। अतः कोरे ज्ञान को त्यागकर, विश्राम त्यागकर उठ खड़े हो

और ईश्वर में पूर्ण समर्पण कर दो।

विशेष :

  1. कवि ने ईश्वर भक्ति की सफलता, पूर्ण समर्पण में मानी है।
  2. दोहा-छन्द।

बैर फूट ही सों भयो, सब भारत को नास।

तबहुँ न छाड़त याहि सब, बँधे मोह के फाँस॥ (3)

शब्दार्थ :

बैर फूट = परस्पर शत्रुता और भेद की भावना। नास = नाश। फाँस = फन्दे में।

सन्दर्भ :

प्रस्तुत पद्य भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित नीति’ अष्टक’ शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग :

इस छन्द में कवि ने भारतवासियों से आपसी बैर तथा फूट को छोड़ने का उपदेश दिया है।

व्याख्या :

कविवर भारतेन्दु जी कहते हैं कि इस देश, भारत का पूरी तरह से नाश आपसी बैर एवं फूट के कारण ही हुआ है। यह सच्चाई मानते हुए भी आज भी भारतवासी लोग मोह के फन्दे में ऐसे बँधे हुए हैं कि इस बुरी भावना का त्याग नहीं करते हैं।

विशेष :

  1. कवि ने बैर, फूट आदि बुराइयों को दूर कर आपसी मेल-मिलाप की बात कही है।
  2. दोहा-छन्द।


कोरी बातन काम कछु चलिहैं नाहिन मीत।

तासों उठि मिलि के करहु बेग परस्पर प्रीत॥ (4)

शब्दार्थ :

कोरी बातन = व्यर्थ की बातों से। नाहिन = नहीं। मीत = मित्र। बेग = जल्दी। परस्पर = आपस में। प्रीत = प्रेम।

सन्दर्भ :

प्रस्तुत पद्य भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित नीति’ अष्टक’ शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग :

कवि परस्पर प्रेम की शिक्षा देता है।

व्याख्या :

कविवर भारतेन्दु जी कहते हैं कि हे मित्र! केवल व्यर्थ की बातों में अब काम नहीं बनेगा। इस कारण से उठो और आपस में प्रेम का व्यवहार करो।

विशेष :

  1. कवि ने परस्पर प्रेम बढ़ाने की बात कही है।
  2. दोहा-छन्द।

निज भाषा, निज धरम, निज मान करम ब्यौहार।

सबै बढ़ावहु वेगि मिलि, कहत पुकार-पुकार॥ (5)

शब्दार्थ :

निज = अपनी। धरम = धर्म। मान = इज्जत। करम = कर्म। ब्यौहार = व्यवहार। बेगि = जल्दी।

सन्दर्भ :

प्रस्तुत पद्य भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित नीति’ अष्टक’ शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग :

कवि ने अपनी भाषा, धर्म, मान, कर्म और व्यवहार को परस्पर बढ़ाने का उपदेश दिया है।

व्याख्या :

कविवर भारतेन्दु जी कहते हैं कि अपनी भाषा, धर्म, मान, कर्म और व्यवहार से सब काम बनता है। अतः मैं बार-बार पुकार कर कहता हूँ कि आप लोग इन्हीं सब बातों को परस्पर मिलकर बढ़ाओ।

विशेष :

  1. कवि ने अपनी भाषा, धर्म, कर्म और व्यवहार अपनाने का सन्देश दिया है।
  2. दोहा-छन्द।

करहँ विलम्ब न भ्रात अब, उठहु मिटावहु सूल।

निज भाषा उन्नति करहु प्रथम जो सबको मूल।। (6)

शब्दार्थ :

विलम्ब = देरी। भ्रात = भाई। सूल = कष्ट, दुःख, बाधाएँ। मूल = आधार।

सन्दर्भ :

प्रस्तुत पद्य भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित नीति’ अष्टक’ शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग :

निज भाषा हिन्दी की उन्नति के लिए कवि ने भारतीयों को जगाया है।

व्याख्या :

कविवर भारतेन्दु जी कहते हैं कि हे भारतवासी भाइयो! अब देर मत करो और अपनी भाषा की उन्नति में आने वाली सभी बाधाओं को मिटा दो। तुम सब मिलकर अपनी हिन्दी भाषा की उन्नति का प्रयास करो, जो कि सबका मूल आधार है।

विशेष :

  1. भारतेन्दु जी का निज भाषा अर्थात् हिन्दी की उन्नति के प्रति विशेष प्रयास रहा है।
  2. दोहा-छन्द।


सेत-सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास।

ऐसे देश कुदेस में, कबहुँ न कीजै बास।। (7)

शब्दार्थ :

सेत-सेत = सफेद-सफेद। कुदेस = बुरे देश में। बास = निवास।

सन्दर्भ :

प्रस्तुत पद्य भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित नीति’ अष्टक’ शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग :

इसमें कवि ने मूर्खो के देश में न रहने का उपदेश दिया है।

व्याख्या :

कविवर भारतेन्दु जी कहते हैं कि जिस देश में रहने वाले नागरिकों में बुद्धि विवेक नहीं होता है और जो सफेद रंग की सभी वस्तुओं को एक जैसा ही समझते हैं; चाहे सफेद कपूर हो या फिर सफेद कपास। कवि कहता है कि ऐसे मूल् के देश में बुद्धिमान आदमी को कभी निवास नहीं करना चाहिए।

विशेष :

  1. कवि अज्ञानी एवं मूर्खो के देश में रहने को बुरा बताता है।
  2. दोहा-छन्द।


कोकिल वायस एक सम, पण्डित मूरख एक।

इन्द्रायन दाडिम विषय, जहाँ न नेक विवेक॥ (8)

शब्दार्थ :

कोकिल = कोयल। वायस = कौआ।, एक सम = एक जैसे। इन्द्रायन = एक प्रकार का कड़वा फल। दाडिम = अनार।

सन्दर्भ :

प्रस्तुत पद्य भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित नीति’ अष्टक’ शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग :

इस दोहे में कवि मूर्ख एवं अज्ञानी लोगों के देश में रहने को बुरा बता रहा है।

व्याख्या:

कविवर भारतेन्दु जी कहते हैं कि जिस देश में कोयल और कौवे में, पण्डित और मूर्ख में, अनार (मीठे फल) और इन्द्रायन (कड़वे फल) में अन्तर नहीं जाना जाता है और जहाँ पर न नेक (उचित बात) और ज्ञान की बात कही जाती है, उस देश में भूलकर भी नहीं रहना चाहिए।

विशेष :

  1. मूर्ख एवं अज्ञानी लोगों के देश में रहना कवि उचित नहीं मानता है।
  2. दोहा-छन्द

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