MP Board Class 10th Hindi Book Navneet Solutions पद्य खंड Chapter 3 प्रेम और सौन्दर्य

MP Board Class 10th Hindi Book Navneet Solutions पद्य खंड Chapter 3 प्रेम और सौन्दर्य

नमस्कार दोस्तों ! इस पोस्ट में हमने MP Board Class 10th Hindi Book Navneet Solutions पद्य खंड Chapter 3 प्रेम और सौन्दर्य के सभी प्रश्न का उत्तर सहित हल प्रस्तुत किया है। हमे आशा है कि यह आपके लिए उपयोगी साबित होगा। आइये शुरू करते हैं।

MP Board Class 10th Hindi Navneet Solutions Chapter 3 प्रेम और सौन्दर्य

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. श्रीकृष्ण के हृदय में किसकी माला शोभा पा रही है?

उत्तर: श्रीकृष्ण के हृदय में गुंजाओं की माला शोभा पा रही है।

प्रश्न 2. गोपाल के कुंडलों की आकृति कैसी है?

उत्तर: गोपाल के कुंडलों की आकृति मछली जैसी है।

प्रश्न 3. श्रद्धा का गायन-स्वर किस तरह का है?

उत्तर: श्रद्धा का गायन-स्वर मधुकरी (भ्रामरी) जैसा है।

प्रश्न 4. मधुर विश्रांत और एकान्त जगत का सुलझा हुआ रहस्य’-सम्बोधन किसके लिए है?

उत्तर: यह सम्बोधन मनु के लिए है। श्रद्धा कहती है कि तुम्हें देखकर ऐसा लगता है मानो तुमने संसार के रहस्य को सुलझा लिया है, इसलिए तुम निश्चित होकर बैठे ह

प्रश्न 5. माथे पर लगे टीके की तुलना किससे की है?

उत्तर: माथे पर लगे टीके की तुलना सूर्य से की गयी है।


लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. गोपाल के गले में पड़ी गुंजों की माला की तुलना किससे की गई है?

उत्तर: गोपाल के गले में पड़ी गुंजों की माला की तुलना दावानल की ज्वाला से की गई है।
 

प्रश्न 2. श्रीकृष्ण के ललाट पर टीका की समानता किससे की गई है?

उत्तर: श्रीकृष्ण के ललाट पर शोभित टीके की समानता सूर्य से की गयी है।
 

प्रश्न 3. मनु को हर्ष मिश्रित झटका-सा क्यों लगा?

उत्तर: श्रद्धा की वाणी सुनते ही मनु को एक हर्ष मिश्रित झटका लगा और वे मोहित होकर यह देखने लगे कि यह संगीत से मधुर वचन कौन कह रहा है।


दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण के सौन्दर्य का वर्णन कीजिए।

उत्तर: श्याम वर्ण पर पीताम्बर धारण किए हुए श्रीकृष्ण का स्लौन्दर्य ऐसा लग रहा है मानो नीलमणि के पर्वत पर प्रात:कालीन सूर्य की किरणें पड़ रही हैं।
 

प्रश्न 2. सरतरु की मनु सिन्धु में,लसति सपल्लव डार का आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: नायक कहता है कि इस नायिका का झिलमिली नामक आभूषण अपार चमक के साथ झीने पट में झलक रहा है। उसे देखकर ऐसा लगता है मानो कल्प वृक्ष की पत्तों सहित डाल समुद्र में विलास कर रही है।
 

प्रश्न 3. अरुण रवि मण्डल उनको भेद दिखाई देता हो, छवि धाम का भावार्थ लिखिए।

उत्तर: कवि कहता है कि श्रद्धा का मुख ऐसा सुन्दर दिखाई दे रहा था जैसे सूर्य अस्त होने से पहले छिप गया हो परन्तु जब लाल सूर्य उन नीले मेघों को चीर कर दिखाई देता है तो वह अत्यन्त सुन्दर दिखाई देता है। श्रद्धा के मुख का सौन्दर्य वैसा ही था।


प्रश्न 4.
अधोलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए

(अ) तो पै वारौ उरबसी …………. खै उरबसी समान।

उत्तर: हे चतुर राधिका! सुन, तू तो इतनी सुन्दर है कि तुझ पर मैं इन्द्र की अप्सरा उर्वशी को भी न्योछावर कर दूँ। हे राधा! तू तो मोहन के उर (हृदय) में उरबसी आभूषण के समान बसी हुई है। अतः दूसरों की बात सुनकर तुम मौन धारण मत करो।

(ब) हृदय की अनुकृति ………….. सौरभ संयुक्त।

उत्तर: पूर्ववत्।

व्याख्या-कवि कहता है कि मनु ने वह सुन्दर दृश्य देखा जो नेत्रों को जादू के समान मोहित कर देने वाला था। श्रद्धा उस समय फूलों की शोभा से युक्त लता के समान लग रही थी। श्रद्धा चाँदनी से घिरे हुए काले बादल के समान लग रही थी। श्रद्धा ने नीली खाल का वस्त्र पहन रखा था इस कारण वह बादल के समान दिखाई दे रही थी। किन्तु उसकी शारीरिक कान्ति उसके परिधान के बाहर भी जगमगा रही थी। श्रद्धा हृदय की भी उदार थी और उसी के अनुरूप वह देखने में उदार लग रही थी, उसका कद लम्बा था और उससे स्वच्छन्दता झलक रही थी। वायु के झोंकों में वह ऐसी लगती थी मानो बसन्त की वायु से हिलता हुआ कोई छोटा साल का पेड़ हो और वह सुगन्धि में डूबा हो।

प्रेम और सौन्दर्य काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1. अधोलिखित काव्यांश में अलंकार पहचान कर लिखिए

(अ) धस्यौ मनो हियगढ़ समरू ड्योढ़ी लसत निसान।

(ब) विश्व की करुण कामना मूर्ति।।

उत्तर: (अ) उत्प्रेक्षा अलंकार

(ब) रूपक अलंकार।


प्रश्न 2. फिरि-फिरि चित त ही रहतु, टुटी लाज की लाव।

अंग-अंग छवि झऔर में, भयो भौंर की नाव।

में छन्द पहचान कर उसके लक्षण लिखिए।

उत्तर: इसमें दोहा छन्द है जिसका लक्षण इस प्रकार है-

दोहा-लक्षण-दोहा चार चरण का मात्रिक छन्द है। इसकी प्रत्येक पंक्ति में 24 मात्राएँ होती हैं। पहले तथा तीसरे चरणों में 13-13 मात्राएँ और दूसरे तथा चौथे चरणों में 11-11 मात्राएँ। होती हैं।
 

प्रश्न 3.संयोग श्रृंगार का एक उदाहरण रस के विभिन्न: अंगों सहित लिखिए।

उत्तर:

संयोग शृंगार :

जहाँ प्रेमी-प्रेमिका की संयोग दशा में प्रेम का अंकन, माधुर्यमय वार्ता, स्पर्श, दर्शन आदि का वर्णन हो वहाँ संयोग श्रृंगार होता है। इसमें स्थायी भाव-रति, विभाव-प्रेमी-प्रेमिका, अनुभाव-परिहास, कटाक्ष, स्पर्श, आलिंगन आदि तथा संचारी भाव-हर्ष, उत्सुकता, मद आदि होते हैं।

अंगों सहित उदाहरण :

जा दिन ते वह नन्द को छोहरा, या वन धेनु चराई गयी है। मोहिनी ताननि गोधन, गावत, बेनु बजाइ रिझाइ गयौ है।। वा दिन सो कछु टोना सो कै, रसखानि हियै में समाइ गयौ है। कोऊन काहू की कानि करै, सिगरो, ब्रज वीर, बिकाई गयौ है।

स्पष्टीकरण :

यहाँ पर आश्रय गोपियाँ तथा आलम्बन श्रीकृष्ण हैं। वन में गाय चराना, वंशी बजाना, गाना आदि उद्दीपन हैं। मोहित होना, लोक लज्जा न मानना आदि अनुभाव हैं। स्मृति’ | संचारी भाव है। इस प्रकार रति स्थायी भाव संयोग-शृंगार में परिणत हुआ है।


प्रश्न 4. वियोग श्रृंगार को परिभाषित करते हुए उदाहरण रस के अंगों सहित लिखिए।

उत्तर: वियोग श्रृंगार-जहाँ प्रेमी-प्रेमिका की वियोग दशा में प्रेम का अंकन, विरह वेदना का सरस वर्णन हो वहाँ वियोग श्रृंगार होता है। इसे विप्रलम्भ श्रृंगार भी कहते हैं। इसमें स्थायी भाव-रति, विभाव-प्रेमी-प्रेमिका, अनुभाव-प्रस्वेद, अश्रु, कम्पन, रुदन आदि तथा संचारी भाव-स्मृति, विषाद, आवेग,आदि होते हैं।

अंगों सहित उदाहरण :

ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।

वृन्दावन गोकुल वन उपवन, सघन कुंज की छाहीं।

प्रात समय माता जसुमति अरु, नन्द देख सुख पावत।

माखन रोटी दह्यौ सजायौ, अति हित साथ खवावत।

गोपी ग्वाल बाल संग खेलत, सब दिन हँसत सिरात॥

स्पष्टीकरण :

इसमें आश्रय श्रीकृष्ण तथा आलम्बन गोकुल की वस्तुएँ, नन्द किशोर आदि हैं। वृन्दावन, वन उपवन, रोटी, दही आदि उद्दीपन हैं। आँसू मलिनता आदि अनुभाव हैं। स्मृति संचारी भाव है तथा रति स्थायी भाव है।

MCQ

प्रश्न 1. श्रीकृष्ण के हृदय पर किसकी माला शोभा पा रही है?

(क) मणियों की (ख) मोतियों की    (ग) गुंजों की    (घ) फूलों की।

उत्तर: (ग) गुंजों की
 

प्रश्न 2.श्रीकृष्ण के कानों में किस प्रकार के कुण्डल सुशोभित हैं?

(क) मकर की आकृति के (ख) मछलियों की आकृति के (ग) भौरों की आकृति के (घ) हिरणों की आकृति के।

उत्तर: (ख) मछलियों की आकृति के

प्रश्न 3. प्रसादजी ने श्रद्धा सर्ग में किस प्रकार का चित्रण किया है?

(क) मनु और श्रद्धा के प्रेम का (ख) प्रकृति का चित्रण (ग) नारी सौन्दर्य का (घ) उपर्युक्त सभी।

उत्तर: (घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 4. सृष्टि में प्रलय के पश्चात् मनु ने सबसे पहले किसको देखा?

(क) पर्वतों को (ख) वायु के झोंके (ग) वृक्षों को (घ) श्रद्धा को।

उत्तर: (घ) श्रद्धा को।
 

रिक्त स्थानों की पूर्ति

  1. सोहत ओढ़े पीतु पटु स्याम ………… गात।
  2. गोपाल के गले में ………… माला थी।
  3. नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल …………. अंग।
  4. श्रद्धा के अपूर्व सौन्दर्य को देख ………… आकर्षित होते हैं।

उत्तर:

  1. सलौने
  2. गुंजों
  3. अधखिला
  4. मनु।

 

सत्य/असत्य

  1. बिहारी के दोहों में राधा-कृष्ण के प्रेम का सुन्दर वर्णन है।
  2. कामायनी आधुनिक काल का श्रेष्ठ महाकाव्य है।  
  3. नील घनशावक से सुकुमार सुधा भरने को विधु के पास पंक्ति प्रसाद की लहर कविता की है।
  4. प्रलयकाल के बाद जब मनु अकेले रह जाते हैं तब उन्हें श्रद्धा के दर्शन होते हैं।

उत्तर:

  1. सत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. सत्य।

सही जोड़ी मिलाइए

1. बिहारी के दोहों में नायक श्रीकृष्ण व नायिका     (क) मकर के आकार की है

2. बिहारी प्रेम और सौन्दर्य                      (ख) आकर्षित हो उठते हैं

3. गोपाल के कुण्डलों की आकृति                (ग) के कवि हैं

4. श्रद्धा की रूप-राशि से मनु                  (घ) राधा हैं

उत्तर:

1. → (घ)

2. → (ग)

3. → (क)

4. → (ख)
 

एक शब्द/वाक्य में उत्तर

  1. बिहारी के काव्य में किस रस की प्रधानता है?
  2. प्राचीन काल में कवि राजाओं के दरबार में रहकर उनकी प्रशंसा में कविता क्यों करते थे?
  3. श्रद्धा की मधुर वाणी सुनकर किसकी समाधि भंग हुई?
  4. श्रीकृष्ण के हृदय पर किसकी माला शोभा पा रही है?    

उत्तर:

  1. श्रृंगार रस
  2. जीविकोपार्जन के लिए
  3. मनु की
  4. गुंजों की।

सौन्दर्य-बोध भाव सारांश

रीतिकालीन कवि बिहारीजी ने श्रीकृष्ण की वेश-भूषा एवं सुन्दर छवि का वर्णन किया है। उनका पीताम्बर प्रात:काल की पीली धूप की भाँति सुशोभित है। श्रीकृष्ण का सौन्दर्य इतना अपूर्व है कि कोई भी कवि उनके अलौकिक सौन्दर्य के वर्णन में सफल नहीं हो सकता। श्रीकृष्ण के मस्तक पर लगा लाल रंग का टीका सूर्यमण्डल में प्रवेश करके उनके सौन्दर्य में चार-चाँद लगा रहा है।

श्रीकृष्ण के हृदय में राधा निवास करती हैं। उनका सौन्दर्य उर्वशी अप्सरा से भी अधिक है। नायिका का मन नायक के प्रेम के कारण सांसारिक कार्यों में नहीं लगता है। उसका चंचल मन नायक के ध्यान में निमग्न रहता है। नायिका को अपने चारों ओर नायक श्रीकृष्ण की छवि दिखाई देती रहती है।


प्रेम और सौन्दर्य संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

सोहत औ. पीतु पटु, स्याम सलौने गात।

मनौं नीलमनि-सैल पर, आतपु परयौ प्रभात॥ (1)

शब्दार्थ :

सोहत = शोभा दे रहा है। सलौने = सुन्दर चमकीले। गात = शरीर। सैल = पर्वत। आतपु = घाम, धूप।

सन्दर्भ :

प्रस्तुत दोहा बिहारी द्वारा रचित सौन्दर्य-बोध शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग :

यहाँ पर पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के स्वरूप का मोहक अंकन किया गया है।

व्याख्या :

कविवर बिहारी कहते हैं कि नायक के श्याम सलौने शरीर पर पीला वस्त्र ओढ़ने से ऐसा लगता है मानो नीलमणि के,पर्वत पर प्रात:कालीन धूप पड़ रही हो।

विशेष :

  1. इस दोहे में नायक के शारीरिक सौन्दर्य का वर्णन हुआ है।
  2. छेकानुप्रास एवं उत्प्रेक्षा अलंकारों का प्रयोग।
  3. दोहा छन्द।

सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजनु की माल।

बाहिर लसति मनौ पिए, दावानल की ज्वाल॥ (2)

शब्दार्थ :

उर = वक्षस्थल पर। गुंजनु की माल = गुंजा रत्नों की माला। लसति = शोभित हो रही है। दावानल = जंगल की आग।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

नायिका ने गुंजों के कुंज में नायक से मिलने का वायदा किया था पर किसी कारण वह वहाँ न पहुँच सकी इससे नायक दुःखित हो जाता है। इसी भाव को यहाँ व्यक्त किया गया है।

व्याख्या :

नायिका अपनी सखी से जो उसके वृत्तांत से परिचित है, कहती है कि श्रीकृष्ण के हृदय पर गुंज माला मुझे ऐसी लगती है मानो उस कुंज में मुझे न पाकर इनको जो दुःखरूपी दावानल का पान करना पड़ा, उसी की ज्वाला बाहर निकल रही है, इसे देखकर मेरी आँखों को बड़ा ताप होता है।

विशेष :

  1. गुरुजनों के मध्य नायिका अपनी बात को संकेतों के माध्यम से कहना चाहती है।
  2. अनुप्रास एवं उत्प्रेक्षा अलंकारों का प्रयोग।
  3. छन्द दोहा।

लिखन बैठि जाकी सबी, गहि-गहि गरव गरूर।

भए न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर॥ (3)

शब्दार्थ :

सबी (सबीह) = यथार्थ चित्र। गरव गरूर = घमण्ड के साथ। केते = कितने। जगत = संसार के। चितेरे = चित्र बनाने वाले। कूर = विदलित, बुरी तरह विकृत।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

इस दोहे में नायिका की सखी नायक से उसके। क्षण-क्षण पर बढ़ते हुए यौवन तथा शरीर की कान्ति की प्रशंसा कर रही है।

व्याख्या :

नायिका की सखी नायक से कह रही है कि भला मैं बेचारी उस नायिका की प्रतिक्षण विकसित होती हुई शोभा। का वर्णन कैसे कर सकती हूँ? उसका यथार्थ चित्र लिखने के लिए घमण्ड में भर-भरकर बैठे जगत के कितने चतुर मूढ़ मति (क्रूर) नहीं हुए।

विशेष :

  1. नायिका के शरीर की, प्रतिक्षण बदलती रूप छवि का वर्णन किया गया है।
  2. सबी’ (सबीह) अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ यथार्थ चित्र से है।
  3. गहि-गहि में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

मकराकृति गोपाल कैं, सोहत कुंडल कान।

धस्यो मनौ हियगढ़ समरु, ड्योढ़ी लसत निसान॥ (4)

शब्दार्थ :

मकराकृति = मछली की आकृति के। सोहत = शोभा देते हैं। धस्यौ = धस गया, अपने अधिकार में किया। हियगढ़ = हृदय रूपी गढ़ में। लसत = शोभा दे रहे हैं। निसान = ध्वजा।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

सखी द्वारा नायिका का वर्णन करने पर नायक के ऊपर। जो कामदेव का प्रभाव पड़ा है, उसी का वर्णन यहाँ किया गया है।

व्याख्या :

हे सखी। गोपाल के कानों में मछली की आकृति के कुंडल ऐसे सुशोभित हैं, मानो हृदय रूपी गढ़ (किले) पर कामदेव ने विजय प्राप्त कर ली है। इसी कारण उसके ध्वज मकान की ड्योढ़ी पर फहरा रहे हैं।

विशेष :

  1. नायक पर कामदेव के प्रभाव का वर्णन किया गया है।
  2. दूसरी पंक्ति में उत्प्रेक्षा अलंकार।
  3. शृंगार रस का वर्णन।

 

नीको लसत लिलार पर, टीको जरित जराय।

छविहिं बढ़वत रवि मनौ, ससि मंडल में आय॥ (5)

शब्दार्थ :

नीको= अच्छा। लसत= शोभा देता है। लिलार पर = माथे पर। जरित जराय = जड़ा हुआ। रवि = सूर्य ससि = चन्द्रमा। टीको = माथे पर पहनने वाला आभूषण।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

नायिका के जड़ाऊ टीके को माथे पर देखकर उससे रीझकर नायक कहता है।

व्याख्या :

नायक कहता है कि उसके ललाट पर जड़ाऊ काम से जड़ा हुआ टीका ऐसा अच्छा लग रहा है मानो चन्द्र-मंडल में आकर सूर्य उसकी छवि बढ़ा रहा हो।

विशेष :

  1. माथे पर पहने हुए टीके की शोभा का वर्णन
  2. द्वितीय पंक्ति में उत्प्रेक्षा अलंकार।
  3. शृंगार रस।

 

झीनैं पट मैं झिलमिली, झलकति ओप अपार।

सुरतरु की मनु सिंधु में, लसति सपल्लव डार।। (6)

शब्दार्थ :

ओप = चमक। सुरतरु = देवताओं का वृक्ष अर्थात् कल्पवृक्ष। लसति = शोभित होती है। सपल्लव = पत्तों सहित। डार = डाल।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

झीने पट में फूटकर निकली हुई नायिका के शरीर की झलक पर रीझकर नायक कहता है।

व्याख्या :

नायक कहता है ओहो! इसकी झिलमिली (एक प्रकार का कानों में पहने जाने वाला आभूषण) अपार चमक के साथ झीने पट में झलक रही है। मानो कल्प वृक्ष की पत्तों सहित डाल समुद्र में विलास कर रही हो।

विशेष :

  1. झीने पट में झिलमिली की झलक का सुन्दर वर्णन है।
  2. दूसरी पंक्ति में उत्प्रेक्षा अलंकार।
  3. शृंगार रस।

त्यौं-त्यौं प्यासेई रहत, ज्यौं-ज्यौं पियत अघाई।

सगुन सलोने रूप की, जुन चख तृषा बुझाई॥ (7)

शब्दार्थ :

प्यासेई रहत = प्यास नहीं बुझती है। अघाई = छककर पीने पर भी। चख = नेत्र। तृषा = प्यास।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

नायिका नायक को बार-बार देखती है फिर भी उसकी प्यास नहीं बुझती है, इसी का यहाँ वर्णन है।

व्याख्या :

नायिका कहती है कि मेरे प्यासे नेत्र ज्यों-ज्यों उस सगुन सलोने रूप को अघाकर पीते हैं त्यों-त्यों ही वे प्यासे बने रहते हैं क्योंकि सगुन एवं सलोने (खारे) पानी से आँखों की प्यास बुझती नहीं है अपितु बढ़ती ही जाती है।

विशेष :

  1. इसमें कवि ने यह भाव प्रकट किया है कि जैसे खारे पानी से प्यास तृप्त नहीं होती है उसी तरह नायक के सलोने रूप को देखने की इच्छा भी पूरी नहीं होती है।
  2. चख-तृषा में रूपक।
  3. श्रृंगार रस।

तो पर वारौं उरबसी, सुनि राधिके सुजान।

तू मोहन के उर बसी है, उरबसी समान॥ (8)

शब्दार्थ :

उरबसी = उर्वशी नामक अप्सरा। सुजान = चतुर। उरबसी = हृदय में बस गयी है। उरबसी = हृदय पर पहनने का आभूषण।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

जब राधिका जी ने यह सुना कि श्रीकृष्ण किसी अन्य नायिका से प्रेम करने लगे हैं तो उन्होंने मौन धारण कर लिया है। सखी इसी मौन को छुड़ाने के निमित्त कहती है।

व्याख्या :

हे चतुर राधिका! सुन, तू तो इतनी सुन्दर है कि तुझ पर मैं इन्द्र की अप्सरा उर्वशी को भी न्योछावर कर दूँ। हे राधा! तू तो मोहन के उर (हृदय) में उरबसी आभूषण के समान बसी हुई है। अतः दूसरों की बात सुनकर तुम मौन धारण मत करो।

विशेष :

नायिका के मौन को छुड़ाने का प्रयास है।

उरबसी में श्लेष, उरबसी-उरबसी में यमक अलंकार।

शृंगार रस।


फिरि-फिरि चित उत ही रहतु, टूटी लाज की लाव।

अंग-अंग-छवि-झौर में, भयो भौर की नाव॥ (9)

शब्दार्थ :

लाव = नाव बाँधने की रस्सी। लाज की लाव = लज्जा रूपी लाव। झौर = झूमर (झुंड) भौंर = भँवर।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

इस दोहे में नायिका अपनी सखी से अपनी स्नेह दशा का वर्णन करती है।

व्याख्या :

हे सखी! नायक के अंग-प्रत्यंग की छवि के झूमर में फँसकर मेरा चित्त (मन) भँवर में पड़ी हुई नाव जैसा बनकर, बार-बार घूमकर पुनः उसी अर्थात् नायक की ओर ही लगा रहता है। वह किसी दूसरी तरफ नहीं जाता है क्योंकि उसकी लज्जारूपी रस्सी टूट गई है।

विशेष :

  1. नायक के प्रति विशेष आकर्षण ने उसकी लोक-लज्जा को मिटा दिया है।
  2. फिरि-फिरि, अंग-अंग में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार, सम्पूर्ण में अनुप्रास।
  3. शृंगार रस।


जहाँ-जहाँ ठाढ़ौ लख्यौ, स्याम सुभग-सिरमौरू।

उनहूँ बिन छिन गहि रहतु, दृगनु अजौं वह ठौरू॥ (10)

शब्दार्थ :

लख्यौ = देखा। सुभग = भाग्यवानों का। सिरमौरू = शिरोमणि। अजौं = अब भी। ठौरू = स्थान।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

श्रीकृष्ण के गोकुल से मथुरा चले जाने पर ब्रजबालाएँ आपस में जो वार्तालाप कर रही हैं, उसी का यहाँ वर्णन है।

व्याख्या :

ब्रज की युवतियाँ परस्पर कह रही हैं कि जिन-जिन स्थानों पर हमने प्यारे श्रीकृष्ण को खड़ा देखा था उन स्थानों में उनके कारण ऐसी सुन्दरता आ गई है कि उनके यहाँ न रहने पर भी हमारे नेत्रों को ऐसे प्रिय लगते हैं कि हम अब भी अपने आपको श्याम सुन्दर के संग पाती हैं।

विशेष :

  1. सुभग सिरमौरु का अर्थ सुन्दर पुरुषों में शिरोमणि (श्रीकृष्ण) के लिए आया है।
  2. श्रीकृष्ण के अलौकिक प्रभाव की छटा।
  3. जहाँ-जहाँ में पुनरुक्ति, स्याम सुभग-सिरमौर में अनुप्रास अलंकार।


श्रद्धा भाव सारांश

जयशंकर प्रसाद ने श्रद्धा तथा मनु की प्राचीन कथा के माध्यम से मानव मन की तर्क प्रधान बुद्धि का अंकन किया है।

श्रद्धा मनु से प्रश्न करती है आप कौन हैं जो इस एकान्त स्थान को अपनी आभा से आलोकित किये हो? संसार रूपी सागर की लहरों के समीप इस निर्जन स्थान पर मौन होकर क्यों बैठे हो?

आपको देखकर ऐसा आभास होता है कि आपने दुनिया के रहस्य का निदान कर लिया है। आप करुणा की सजल मूर्ति हो। मनु ने श्रद्धा के अपूर्व सौन्दर्य को निहारा। वह उनके नेत्रों को उलझाने वाला सुन्दर माया-जाल था। श्रद्धा का शरीर पुष्पों से आच्छादित कोमल लता के समान अथवा बादलों के मध्य चन्द्र की चाँदनी जैसा दृष्टिगोचर हो रहा था।

श्रद्धा का शरीर बसन्त की शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु से झूमते हुए सुरभित शाल के लघु वृक्ष की भाँति सुशोभित हो रहा था। श्रद्धा की केशराशि उसके कंधों तक पीछे की ओर बिखरी हुई थी। बालों की आभा उसके मुखमण्डल की शोभा को और भी अधिक बढ़ा रही थी। श्रद्धा की मुस्कान कोमल कली पर उगते हुए सूर्य की उज्ज्वल किरण अलसाई होने के कारण सुन्दर लग रही थी।

श्रद्धा की सुन्दरता इस प्रकार दृष्टिगोचर हो रही थी मानो पुष्पों का वन लेकर मन्द-मन्द बहती हुई वायु उसके आँचल को सुगन्ध से परिपूर्ण करके कृतज्ञता ज्ञापन कर रही हो।
 

श्रद्धा संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) कौन तुम? संसृति-जलनिधि तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक,

कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक?

मधुर विश्रांत और एकांत-जगत का सुलझा हुआ रहस्य,

एक करुणामय सुन्दर मौन और चंचल मन का आलस्य।

शब्दार्थ :

संसृति = संसार। जलनिधि = सागर। निर्जन = एकान्त। प्रभा = कान्ति। अभिषेक = तिलक करना, सुशोभित करना। मधुर = आकर्षक। विश्रांत = थके हुए। . 

सन्दर्भ-प्रस्तुत छन्द महाकवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित कामायनी महाकाव्य के श्रद्धा सर्ग से लिया गया है।

प्रसंग :

इस छन्द में प्रलय काल के पश्चात् श्रद्धा का मनु से साक्षात्कार होता है। श्रद्धा मनु से पूछती है।

व्याख्या :

श्रद्धा मनु से पूछती है कि तुम कौन हो? जिस प्रकार सागर की लहरों द्वारा किनारे पर फेंकी गई मणि सूनेपन को अपनी ज्योति से सुशोभित करती है, उसी प्रकार तुम भी इस संसार रूपी सागर के किनारे बैठे हुए मणि के समान इस एकान्त स्थान को अपनी कान्ति से सुशोभित कर रहे हो। तुम्हारा रूप मधुर है, तुम थके हुए से प्रतीत हो रहे हो और इस एकान्त सूने स्थान पर बैठे हो। तुम्हें देखकर ऐसा लगता है मानो तुमने संसार के रहस्य को सुलझा लिया है इसलिए तुम यहाँ निश्चित होकर बैठे हो। तुम्हारे मुख पर करुणा भी है और तुम्हारा मौन बड़ा आकर्षक प्रतीत होता है। तुम्हारी यह शान्ति सदैव चंचल रहने वाले मन की शिथिलता के समान है।

विशेष :

  1. कविता का आरम्भ नाटकीय ढंग से होता है।
  2. रूपक एवं उपमा अलंकार का प्रयोग।
  3. श्रृंगार रस।


(2) सुना यह मनु ने मधु गुंजार मधुकरी-सा जब सानन्द,

किए मुख नीचा कमल समान प्रथम कवि का ज्यों सुन्दर छन्द,

एक झिटका-सा लगा सहर्ष, निरखने लगे लुटे से कौन,

गा रहा यह सुन्दर संगीत? कुतूहल रहन सका फिर मौन।

शब्दार्थ :

मधु-गुंजार = मनोहर शब्द। मधुकरी = भँवरी। सानन्द = आनन्द सहित। झिटका = झटका।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :

पूर्ववत्।

व्याख्या :

कवि कहता है कि उस समय मनु नीचे झुके हुए कमल के समान अपना मुख नीचा किए बैठे थे। उन्होंने भँवरी की गुंजार के समान श्रद्धा की यह मधुर वाणी बड़े हर्ष से सुनी। उस समय वे अकेले थे; किसी अन्य की मधुर वाणी सुनकर उनका प्रसन्न होना स्वाभाविक था। श्रद्धा द्वारा कहे गये ये शब्द मनु के लिए आदि कवि वाल्मीकि के प्रथम सुन्दर छन्द के समान थे।

वाल्मीकि कवि के प्रथम छन्द में करुणा का भाव समाया हुआ था। इधर श्रद्धा के वचनों में भी करुणा है। श्रद्धा की वाणी सुनते ही मनु को एक झटका-सा लगा और वे मोहित होकर यह देखने लगे कि कौन यह संगीत से मधुर वचन कह रहा है? जब मनु ने श्रद्धा को अपने सामने देखा तो कुतूहल के कारण वह शान्त न रह सके।

विशेष :

  1. आदि कवि वाल्मीकि के मुख से जो प्रथम छन्द निकला था, उसमें करुणा मौजूद थी।
  2. अनुप्रास एवं उपमा अलंकार का प्रयोग।
  3. भाषा खड़ी बोली।


(3) और देखा वह सुन्दर दृश्य नयन का इन्द्रजाल अभिराम,

कुसुम-वैभव में लता समान चन्द्रिका से लिपटा घनश्याम।

हृदय की अनुकृति बाह्य उदार एक लम्बी काया उन्मुक्त,

मधु-पवन, क्रीड़ित ज्यों शिशु साल, सुशोभित हो सौरभ-संयुक्त।

शब्दार्थ :

इन्द्रजाल = जादू। अभिराम = सुन्दर। कुसुम-वैभव = फलों का ऐश्वर्य। चन्द्रिका = चाँदनी। घनश्याम = काला बादल। अनुकृति = अनुरूप। बाह्य = देखने में। उन्मुक्त = स्वछंद। मधु-पवन = बसन्त की वाय शिशु-साल = साल का छोटा वृक्ष। सौरभ-संयुक्त = सुगन्धि से युक्त।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :

पूर्ववत्।

व्याख्या :

कवि कहता है कि मनु ने वह सुन्दर दृश्य देखा जो नेत्रों को जादू के समान मोहित कर देने वाला था। श्रद्धा उस समय फूलों की शोभा से युक्त लता के समान लग रही थी। श्रद्धा चाँदनी से घिरे हुए काले बादल के समान लग रही थी। श्रद्धा ने नीली खाल का वस्त्र पहन रखा था इस कारण वह बादल के समान दिखाई दे रही थी। किन्तु उसकी शारीरिक कान्ति उसके परिधान के बाहर भी जगमगा रही थी। श्रद्धा हृदय की भी उदार थी और उसी के अनुरूप वह देखने में उदार लग रही थी, उसका कद लम्बा था और उससे स्वच्छन्दता झलक रही थी। वायु के झोंकों में वह ऐसी लगती थी मानो बसन्त की वायु से हिलता हुआ कोई छोटा साल का पेड़ हो और वह सुगन्धि में डूबा हो।

विशेष :

  1. श्रद्धा के अनुपम सौन्दर्य का वर्णन।
  2. उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलंकार।
  3. भाषा-खड़ी बोली।


(4) मसूण, गांधार देश के नील रोम वाले मेषों के चर्म,

ढंक रहे थे उसका वपु कांत बन रहा था वह कोमल वर्म।

नील परिधान बीच सुकुमार खुला रहा मृदुल अधखुला

अंग, खिला हो ज्यों बिजली का फूल मेघवन बीच गुलाबी रंग।

शब्दार्थ :

मसृण = चिकने। गांधार देश = कंधार देश (अफगानिस्तान देश वर्तमान में)। रोम = रोयें। मेष = मेंढ़ा। चर्म = खाल। वपु = शरीर। कान्त = सुन्दर। वर्म = आवरण। परिधान = वस्त्र। मृदुल = कोमल।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :

पूर्ववत्।

व्याख्या :

कवि कहता है कि कंधार देश के रोयें वाले मेंढ़ों की कोमल खाल से उसका सुन्दर शरीर ढका हुआ था। वही खाल (चमड़ा) उसका कोमल आवरण (वस्त्र) बन रहा था।

उस नीले आवरण के बीच से उसका कोमल अंग दिखाई दे रहा था। ऐसा लग रहा था मानो मेघ-वन के बीच में गुलाबी रंग का बिजली का फूल खिला हो।

विशेष :

  1. श्रद्धा की वेशभूषा और सुन्दरता का वर्णन है।
  2. उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलंकार।
  3. भाषा-खीड़ी बोली।


(5) आज, वह मुख! पश्चिम के व्योम बीच जब घिरते हों घनश्याम,

अरुण रवि-मण्डल उनको भेद दिखाई देता हो छविधाम।

या कि, नव इंद्रनील लघु शृंग फोड़कर धधक रही हो कांत,

एक लघु ज्वालामुखी अचेत माधवी रजनी में अश्रान्त।

शब्दार्थ :

व्योम= आकाश। अरुणलाल। रवि-मण्डल = सूर्य मण्डल। छविधाम = सुन्दर। इन्द्रनील = नीलम। लघु श्रृंग = छोटी चोटी। माधवी रजनी = बसन्त की रात। अश्रान्त = निरन्तर।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-पूर्ववत्।

व्याख्या-कवि कहता है कि आह! वह मुख बहुत ही। सुन्दर था। सन्ध्या के समय पश्चिम दिशा में जब काले बादल आ जाते हैं और सूर्य अस्त होने से पहले छिप जाता है किन्तु जब

लाल सूर्य उन मेघों को चीर कर दिखाई देता है तो वह अत्यन्त सुन्दर दिखाई देता है। श्रद्धा के मुख का सौन्दर्य भी वैसा ही था।

श्रद्धा के मुख की सुन्दरता का वर्णन करते हुए आगे कवि। कहता है कि नीलम की नन्ही-सी चोटी हो और बसन्त ऋतु की मधुर रात्रि में एक छोटा-सा ज्वालामुखी उस नीलम की चोटी

को फोड़कर धधक रहा हो तो जैसी उसकी शोभा होगी, वैसी ही। शोभा श्रद्धा के मुख की थी।

विशेष :

  1. श्रद्धा द्वारा पहना गया वस्त्र नीला है इस कारण नीले मेघों के बीच सूर्य की कल्पना की गई है।
  2. नीलम की चोटी कल्पना भी इसी नीले आवरण के कारण की गयी है।
  3. उत्प्रेक्षा अलंकार।


(6) घिर रहे थे घुघराले बाल अंस अवलम्बित मुख के पास,

नील घनशावक से सुकुमार सुधा भरने को विधु के पास।

और उस मुख पर वह मुसकान। रक्त किसलय पर ले विश्राम,

अरुण की एक किरण अम्लान अधिक अलसाई हो अभिराम।

शब्दार्थ :

अंस. = कंधा। अवलम्बित = सहारे। घन-शावक = बादल के बच्चे। सुधा = अमृत। विधु = चन्द्रमा। रक्त किसलय = लाल कोंपल। अरुण = सूर्य। अम्लान = कान्तिमान। अभिराम = सुन्दर।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :

पूर्ववत्।

व्याख्या :

श्रद्धा के मुख के पास उसके कंधे पर धुंघराले बाल बिखरे हुए थे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था मानो मेघों के बालक अर्थात् छोटे बादल चन्द्रमा के पास अमृत भरने को आये हों और श्रद्धा के मुख पर मुस्कराहट ऐसी शोभा दे रही थी मानो कोई सूर्य की कान्तिमान किरण लाल कोंपलों पर विश्राम करके अलसा रही हो।

विशेष :

  1. श्रद्धा के बाल नीले मेघों के समान हैं और मुख = चन्द्रमा के समान, अतः उत्प्रेक्षा अलंकार।
  2. श्रद्धा के ओंठ लाल कोंपल के समान हैं और मुस्कराहट सूर्य की किरण के समान। अतः उत्प्रेक्षा।
  3. श्रृंगार रस।


(7) नित्य-यौवन छवि से ही दीप्त विश्व की करुण कामना मूर्ति,

स्पर्श के आकर्षण से पूर्ण प्रकट करती ज्यों जड़ में स्फूर्ति।

उषा की पहिली लेखा कांत, माधुरी से भींगी भर मोद,

मद भरी जैसे उठे सलज्ज भोर की तारक-द्युति की गोद॥

शब्दार्थ :

यौवन की छवि = यौवन की शोभा। दीप्ति = शोभित। करुण = दयावान। कामना मूर्ति = इच्छा की मूर्ति। स्पर्श-पूर्ण = श्रद्धा को देखकर उसे स्पर्श करने की इच्छा होती थी। स्फूर्ति = चेतना। लेखा कांत = सुन्दर किरण। माधुरी = सुषमा। मोद = हर्ष। मदभरी = मस्ती से भरी हुई। भोर = प्रात:काल। तारक द्युति की गोद = तारों की शोभा की छाया में।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :

पूर्ववत्।

व्याख्या :

कवि कहता है कि श्रद्धा अनन्त यौवन की शोभा से दीप्त थी। वह संसार भर की सदय इच्छा की मूर्ति थी। उसे देखकर उसे स्पर्श करने की तीव्र इच्छा उत्पन्न होती थी। ऐसा लगता था मानो उसका सौन्दर्य जड़ वस्तुओं में भी चेतना भर देता था।

श्रद्धा उषा की पहली सुन्दर किरण के समान है। उसमें माधुर्य, आनन्द, मस्ती एवं लज्जा है। जिस प्रकार उषा की प्रथम किरण अन्धकार को दूर करती हुई निकल जाती है उसी प्रकार श्रद्धा के दर्शन से मनु के हृदय में छाया निराशा का अंधकार भी दूर होने लगा।

विशेष :

  1. उषा की प्रथम किरण का मानवीकरण है।
  2. श्रद्धा को पाकर मनु की निराशा कुछ कम होने लगी है।
  3. उपमा एवं उत्प्रेक्षा अलंकार।


(8) कुसुम कानन अंचल में मंद-पवन प्रेरित सौरभ साकार,

रचित-परमाणु-पराग-शरीर, खड़ा हो, ले मधु का आधार।

और पड़ती हो उस पर शुभ्र नवल मधु राका मन की साथ,

हँसी का मद विह्वल प्रतिबिम्ब मधुरिमा खेला सदृश अबाध।


शब्दार्थ :

कानन-अंचल = जंगल के बीच। मंद-पवन = धीरे-धीरे चलने वाली वायु। सौरभ साकार = सुगन्धि की साकार मूर्ति। परमाणु पराग = पराग के परमाणु। मधु = पुष्प रस। शुभ्र = स्वच्छ। नवल = नवीन। मधु राका = बसन्त की पूर्णिमा। मद विह्वल = मस्ती से भरी हुई। मधुरिमा खेला सदृश अबाध = हँसी में अक्षय माधुर्य भरा है।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :

पूर्ववत्।

व्याख्या :

कवि कहता है कि श्रद्धा फूलों से भरे हुए वन के बीच सौरभ की मूर्ति के समान दिखाई देती है, जिससे मन्द पवन खेल रहा है। वह सौरभ की मूर्ति फलों के पराग के परमाणुओं से बनी है। इस पराग निर्मित मूर्ति पर मन की कामना रूपी नवीन बसन्त की पूर्णिमा की चाँदनी पड़ रही हो तो जैसी शोभा होगी, वैसी ही शोभा श्रद्धा की हो रही थी। उस समय श्रद्धा की मस्त हँसी निरन्तर माधुर्य से खेला करती थी।

विशेष :

  1. श्रद्धा को पराग के परमाणुओं से निर्मित मूर्ति के समान दिखाकर उसके अनुपम सौन्दर्य का वर्णन किया है।
  2. उपमा अलंकार, अनुप्रास की छटा।
  3. शृंगार रस।

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